अहंकार

अहंकार

आज रामलाल जी बहुत खुश थे। उनका बेटा रमेश आज अफसर बन गया था। रामलाल जी ने बड़ी मुश्किलों से गुजरकर रमेश को पढ़ाया लिखाया था। वो खेती करते थे। और कभी कभी दूसरों के लिए मजदूरी भी करते। रामलाल जी खुद पढ़े लिखे नहीं थे पर वो पढ़ाई का महत्व अच्छी तरह से जानते थे।


रामलाल जी और जानकी जी के दो बेटे थे। रमेश और महेश। रमेश पढ़ लिखकर अच्छा अफसर बन गया और महेश की अभी पढ़ाई चल रही थी। रमेश भी अपने माता पिता से बहोत प्यार करता था। उसके पिता ने उसके लिए जो मेहनत की उससे भलीभांति परिचित था।


अब रामलाल जी और जानकी जी को रमेश की शादी की चिंता सताने लगी। रमेश अपनी ड्यूटी के कारण शहर में अकेला ही रहता था। इसीलिए वो चाहते थे कि रमेश अपना घर बसा ले। ताकि उसे अकेला न रहना पड़े।
रमेश ने अपने माता पिता को पहले ही कह दिया था कि मै आपकी पसंद की लड़की से ही शादी करूंगा। इसीलिए रामलालजी ने लड़की ढूंढ़ना शुरू कर दिया। और उनकी तलाश संध्या पर जाकर रुकी।


संध्या एक गरीब परिवार की लड़की थी। दिखने में सुंदर और थोड़ी बहोत पढ़ीलिखी थी। रामलाल जी को ऐसी ही बहू की तलाश थी। वह चाहते थे कि किसी गरीब परिवार की लड़की को अपने घर की बहू बनाकर लाए ताकि उसका जीवन संवर जाए।


रमेश और संध्या ने भी एक दूसरे को पसंद कर लिया। और कुछ ही दिनों में दोनों की शादी हो गई। संध्या बहू बन कर घर आ गई। रामलाल जी और जानकी जी की अपनी कोई बेटी नहीं थी। इसीलिए दोनों ने अपनी बहू संध्या को बहू काम और बेटी ज्यादा माना। दो चार दिन ससुराल रहकर संध्या रमेश के साथ शहर आ गई।


रमेश ने अपने माता पिता को भी अपने साथ शहर चलने को कहा। पर उन लोगो का गाव छोड़ने का मन नहीं करता। और अभी बेटे की नयी नयी शादी हुई थी तो सोचा कि कुछ दिन बहू बेटे को अकेले ही रहने दे। इसीलिए वो रमेश और संध्या के साथ शहर में नहीं गए।


संध्या और रमेश अब शहर आकर अपनी गृहस्थी में खुश थे। रमेश जितना अच्छा इंसान था उतना ही अच्छा पति भी था। उसने संध्या को शहर के तौर तरीके सिखाए। रमेश का बड़े बड़े अफसरों के साथ उठना बैठना था। अब संध्या भी इस सोसायटी में घुल मिल गई थी।


उसका किटी पार्टी में जाना। ब्यूटी पार्लरों में जाना। और बड़ी बड़ी पार्टियों में जाना लगा रहता था। अब संध्या थोड़ी घमंडी हो गई थी। अब गाव वाले लोग उसे गवार लगने लगे थे। वो अब लोगो का स्टेटस देखकर उनसे बाते करती। सास ससुर तो उसे अब फूटी आंख नहीं सुहाते थे।
एक दिन रामलाल जी की तबीयत अचानक से बिगड़ी। तो वो अपना इलाज कराने शहर आ गए। शहर में उनका बस एक दिन का काम था। तो उन्होंने सोचा के शहर का रहा हूं तो अपने बहू बेटे से मिलकर आ जाऊंगा।


रामलाल जी जिस डॉक्टर के पास इलाज कराने गए थे वह उनके बेटे रमेश का दोस्त था। इसीलिए डॉक्टर ने रमेश को फोन कर उनके तबीयत के बारे में जानकारी दी। रामलाल जी इलाज कराने के बाद सीधे अपने बेटे रमेश के घर गए।
रमेश के घर में किटी पार्टी चल रही थी। संध्या और उसकी कुछ सहेलियां घर पर ही थी। रामलाल जी गेट पर आए और उन्होंने गेट से संध्या के नाम से आवाज लगाई। संध्या ने उन्हें खिड़की से देख लिया था पर वो फिर भी गेट खोलने नहीं गई। वो नहीं चाहती थी के उसकी सहेलियों को ये पता चले की उसके ससुर गांव से आए एक अनपढ़ इंसान है।


उसकी सहेलियों ने जब उसे कहा कि तुम्हारे घर के गेट पर कोई बुजुर्ग इंसान तुम्हे पुकार रहा है तो संध्या में बात टालते हुए कहा कि कोई भिखारी होगा। कुछ मांगने आया होगा। और उसने गेट खोला ही नहीं। काफी देर गेट के बाहर से आवाज देने पर भी जब गेट नहीं खोला गया तो रामलाल जी निराश होकर वहां से जाने लगे। तभी रास्ते में ही उन्हें रमेश मिल गया। रमेश को उसके डॉक्टर दोस्त से उसके पिताजी के आने की सूचना पहले ही मिल गई थी।

उसे पता था कि पिताजी अभी उसके घर ही गए होंगे इसीलिए वो उनसे मिलने के लिए सीधा घर पर ही आ रहा था। रमेश रामलाल जी से मिला और उन्हें गाड़ी में बिठाकर फिर से घर ले आया। रमेश की गाड़ी देखते ही संध्या खुशी से चहकते हुए बाहर आई। और गेट खोला। जैसे ही उसने रमेश के साथ अपने ससुर को भी देखा उसका चेहरा उतर गया। उसने बेमन से ही उनके पैर छुए और रमेश उन्हें अंदर ले आया। अंदर आते ही संध्या की सहेलियां रमेश और रामलाल जी को निहारने लगी। तभी संध्या की एक सहेली बोल पड़ी।


“वाह संध्या…जीजाजी भी कमाल के है। कितना बड़ा दिल है उनका। एक भिखारी को अपनी गाड़ी में बिठाकर घर में लेकर आए है। मानना पड़ेगा।”


” भिखारी…?…कौन भिखारी..?” रमेश आश्चर्य से बोल पड़ा।


” यही अंकल जिनको आप अपने साथ ले आए है। काफी देर से गेट से संध्या को आवाज लगा रहे थे। पर आप तो सीधा इनको घर के अंदर ही के आए।” संध्या की सहेली बोल पड़ी।


” ये भिखारी नहीं है। ये मेरे पिताजी है। और आपकी जानकारी के लिए बता दू की आप जिस घर में खड़ी है वो इनका ही घर है।” रमेश ने चिल्लाकर कहा। ” तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे पिता को भिखारी कहने की” संध्या की और गुस्से से देखते हुए रमेश चिल्लाया।


संध्या अपना सर नीचे किए वहीं खड़ी थी। रमेश को गुस्से में देखकर उसकी सहेलिया अपने अपने घर चली गई। रामलाल जी को काफी बुरा लगा। रमेश तो इतना ज्यादा गुस्से में था कि उसने संध्या का सामान पैक कर दिया और उसे मायके छोड़ आया। एक दिन शहर में रुककर रामलाल जी अपने गांव चले गए।


उधर मायके मे संध्या का मन नहीं लग रहा था। उसे उसके किये पर पछतावा हो रहा था। पर अब वह कुछ कर भी नहीं सकती थी। क्यूंकि रमेश अब उसकी एक भी नहीं सुनना चाहता था।


इधर गांव में आकर रामलालजी ने अपनी पत्नी जानकी को शहर में हुई सारी बाते बता दी। जानकी जी को भी बहोत बुरा लगा। आखिर संध्या को उन्होंने उनकी बेटी माना था और संध्या ने तो उन्हें पहचानने से ही इनकार कर दिया था।


कुछ दिन ऐसेही बीते। ना तो रमेश संध्या से बात कर रहा था। ना ही रामलालजी और जानकी जी को संध्या से बात करने देता। इस घटना को हुए अब दो महीने बीत चुके थे।
एक दिन अचानक रामलालजी और जानकी जी रमेश के पास शहर आये। रमेश जब उनसे मिला तो देखा कि संध्या भी उनके साथ आई थी। संध्या को देखकर रमेश उससे बात किए बिना अपने कमरे में जाने लगा। तभी रामलाल जी ने उसे रोक लिया।


” बेटा, अब बहोत दिन हो चुके है। बहू अपने किए पर काफी शर्मिंदा है। और छोटी छोटी बातें तो पति पत्नी में होती है रहती है। पर इसीलिए कोई अपनी बसी बसाई गृहस्थी तो नहीं उजाड़ता। तुम बहू को माफ करदो।” रामलाल जी ने कहा।


” नहीं पिताजी, इसने कोई छोटी मोटी गलती नहीं की है। इसने तो मेरे देवता समान पिताजी का अपमान किया है। आपने अपने खून पसीने से मुझे इतना काबिल बनाया और इस घमंडी औरत ने आपके लिए मेरे घर के दरवाजे बंद कर दिए। मै चाहकर भी ये सब नहीं भूल सकता। मेरी पत्नी के कारण आपका अपमान हुआ है पिताजी। और इसलिए मै ही गुनहगार हूं। संध्या मेरी पत्नी है इस नाते मै भी आपका कुसुरवार हूं। आज मै अपने आप से नजरें भी नहीं मिला पा रहा हूं। मुझे माफ़ कर दीजिए पिताजी।” बोलते हुए रमेश के आखो में आंसू आ गए।


” नहीं बेटा। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। और गलतियां तो हम इंसानों से ही होती है ना। हम सब गलतियां करते है। पर हम सबको अपनी गलती सुधारनेका एक मौका तो मिलना ही चाहिए। बहू को अपनी गलती का बहुत पछतावा है। हम चाहते है की तुम संध्या को एक और मौका दो।


“जानकी जी बोल पड़ी।


” नहीं मां…मै संध्या को माफ नहीं कर सकता। उसने मेरे पिताजी को भिखारी कहा। क्या मै ये बात भूल जाऊं।” रमेश ने कहा।


” हा भूल जाओ। और अपनी शादी को एक और मौका दो। ये हमारी बिनती नहीं हमारा आदेश समझो। अपने माता पिता के लिए तुम इतना तो कर ही सकते हो। संध्या को हमने अपनी बेटी माना है। और अपनी बेटी से ऐसी गलती होती तो क्या हम उसको गलती सुधरनेका एक मौका नहीं देते। ” रामलाल जी बोल पड़े।


ये सुनते ही संध्या की आंखो में आंसू आ गए। वह दौड़ कर अपने सास ससुर के पैरो में गिर पड़ी। और कहा…


” मुझे माफ़ कर दीजिए मां बाबूजी। आप मेरे बारे में इतना सोचते है। मुझे अपनी बेटी मानते है। यहां तक कि आप मेरे लिए अपने बेटे से भी लड़ रहे है। और मैंने आपका अपमान कर दिया। कितनी अभागन हू मै जी अपने देवता समान सास ससुर को पहचान नहीं पाई। मुझे माफ़ कर दीजिए।”


जानकी जी ने आगे आकर संध्या को गले लगा लिया।
” देखी बेटा…अगर संध्या और तुम्हारी शादी टूटी तो उम्रभर मुझे ऐसा लगेगा कि ना चाहते हुए भी मै अपने बेटे की खुशियों के बीच आ गया। कहीं ना कहीं तुम दोनों के इस तकरार का कारण मै ही हू। और ये बात मुझे पूरी जिंदगी परेशान करती रहेगी की संध्या बहू को एक और मौका भी ना मिला।” रामलाल जी ने कहा।


” नहीं पिताजी। ये सब आपके कारण बिलकुल भी नहीं हुआ है। आप ऐसा मत सोचिए।” रमेश बोल पड़ा।
” तो फिर तुम मेरी बात मान लो। और बहू को एक और मौका दो।” रामलाल जी ने कहा।


अब रमेश के पास कोई और चारा नहीं था संध्या को एक और मौका देने के सिवा। वो अपने मां बाबूजी को मना नहीं कर सका। दो चार दिन रमेश और संध्या के पास रहकर रामलालजी और जानकी जी गांव लौट आए।
रमेश पहले तो संध्या से ज्यादा बात नहीं करता था। पर धीरे धीरे संध्या ने अपने बदले हुए व्यवहार से रमेश के दिल में फिर से जगह बना ली थी। मां बाबूजी भी बीच बीच में शहर आते रहते। संध्या भी उनकी मन से सेवा करती।

समाप्त।

©आरती लोडम खरबड़कर.

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